चुनावी मुद्दा बने तो संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो सकती है गढ़वाली बोली

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देहरादून, 21 मार्च। गढ़वाली बोली/भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए वर्षों से मंचों पर खूब मांग उठती रही पर संसद में पैरवी का इंतजार रहा।

उत्तराखंड की गढ़वाली बोली/भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने का इंतजार है। आजादी के बाद से लोक बोली व भाषा को उसका हक दिलाने के लिए छोटे-बड़े मंचों पर निरंतर मांग हो रही है, लेकिन आज तक संसद में इसकी पैरवी नहीं हो पाई है। लोक भाषा से जुड़े साहित्यकारों ने भी गढ़वाली बोली-भाषा को उसका मान दिलाने की मांग की है। केंद्रीय मंत्री रहते हुए सतपाल महाराज भी गढ़वाली बोली-भाषा की पैरवी कर चुके हैं।

लोक साहित्य से जुड़े कुछ जानकार गढ़वाली भाषा में लिखित साहित्य का सृजन वर्ष 1750 तो कुछ गढ़वाल नरेश सुदर्शन शाह (1815-1856) से होना मानते हैं। लोक साहित्यकार नंद किशोर हटवाल, रमाकांत बेंजवाल और बीना बेंजवाल का कहना है कि गढ़वाली बोली-भाषा स्वयं में समृद्ध है। इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाना अनिवार्य है।

लोक साहित्य के क्षेत्र में बीते दो दशक से सक्रिय कलश संस्था के संस्थापक ओम प्रकाश सेमवाल, लोक कवि जगदंबा चमोला व उपासना सेमवाल का कहना है कि रुद्रप्रयाग सहित गढ़वाल के सभी जिलों में गढ़वाली में साहित्य सृजन का कार्य नित नए मुकाम हासिल कर रहा है। ऐसे में जरूरी है कि गढ़वाली भाषा को आठवीं अनुसूचित में शामिल करने की बात लोकसभा चुनाव का मुद्दा बने।

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